नई दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने आज एक बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा है कि ‘धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा’ के आधार पर वोट मांगा जाना चुनाव कानून प्रावधान के तहत ‘भ्रष्ट तरीका’ है। जनप्रतिनिधि कानून में ‘भ्रष्ट तरीके’ को परिभाषित करने वाली धारा 123 (3) में इस्तेमाल शब्द ‘उसका धर्म’ के संदर्भ में प्रधान न्यायाधीश टी एस ठाकुर और तीन अन्य न्यायाधीशों ने तीन के मुकाबले चार के बहुमत से फैसला सुनाते हुए कहा कि इसका यह अभिप्राय मतदाताओं, उम्मीदवारों और उनके एजेंटों आदि समेत सभी के धर्म और जाति से है।
हालांकि तीन न्यायाधीशों- यू यू ललित, ए के गोयल और डी वाई चंद्रचूड़ का अल्पमत यह था कि ‘उसका’ धर्म का अभिप्राय सिर्फ उम्मीदवार के धर्म से है। न्यायाधीशों के बीच बहुमत यह था कि ऐसे मुद्दों को देखते समय ‘धर्मनिरपेक्षता’ का ख्याल रखा जाना चाहिए। बहुमत में शामिल चार न्यायाधीशों में एम बी लोकुर, एस ए बोबडे और एल एन राव शामिल थे।
‘धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा’ के आधार पर वोट मांगना या मतदाताओं से मतदान नहीं करने के लिए कहना ‘भ्रष्ट तरीका’ है या नहीं, इससे संबंधित चुनावी कानून के प्रावधान के दायरे पर फैसला शीर्ष न्यायालय ने 27 अक्तूबर को सुरक्षित रख लिया था। पहले के फैसले में कहा गया था कि ‘भ्रष्ट तरीके’ से संबंधित मामलों को देखने वाली जनप्रतिनिधि कानून की धारा 123 (3) में इस्तेमाल शब्द ‘उसका धर्म’ का अभिप्राय सिर्फ उम्मीदवारों के धर्म से है।
जनप्रतिनिधि कानून की धारा 123 (3) कहती है, ‘किसी उम्मीदवार या उसके एजेंट द्वारा या उम्मीदवार की सहमति से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा या उसके चुनावी एजेंट द्वारा किसी व्यक्ति के धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर उसे वोट करने या वोट नहीं करने के लिए अपील करना या किसी उम्मीदवार के निर्वाचन की संभावनाओं को आगे बढ़ाने के लिए या प्रभावित करने के लिए धार्मिक प्रतीकों या राष्ट्रीय प्रतीकों का इस्तेमाल करना’ भ्रष्ट तरीका माना जाएगा। पीठ ने कहा था कि धर्म को ‘‘मानने और प्रसारित करने’ की स्वतंत्रता है लेकिन पीठ ने यह पूछा था कि ‘‘क्या इसका (धर्म का) इस्तेमाल चुनावी उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है?’
पीठ कई याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिनमें अभिराम सिंह की याचिका भी शामिल थी। वर्ष 1990 में मुंबई की सांताक्रूज विधानसभा सीट से विधायक के रूप में निर्वाचित अभिराम सिंह के निर्वाचन को बंबई उच्च न्यायालय ने दरकिनार कर दिया था। शीर्ष न्यायालय ने फरवरी 2014 को अभिराम सिंह की याचिका को अन्य याचिकाओं के साथ संलग्न कर दिया था। पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने इनके संदर्भ में अपने 20 साल पुराने ‘हिंदुत्व’ के फैसले पर फिर से गौर करने और चुनाव कानूनों पर सुविचारित व्यवस्था के लिये इस पर सात सदस्यीय संविधान पीठ को सौंपा जायेगा।
धारा 123(3) की व्याख्या का मुद्दा 30 जनवरी 2014 को पांच न्यायाधीशों की एक पीठ के समक्ष आया था। इस पीठ ने इसे सात न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया था। तीन न्यायाधीशों की एक पीठ ने 16 अप्रैल 1992 को सिंह की अपील पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को सौंप दी थी। इस याचिका में भी यही सवाल और धारा 123 (3) की व्याख्या की बात उठाई गई थी। हालांकि इस मामले पर 30 जनवरी 2014 को पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ सुनवाई कर रही थी, ऐसा बताया गया कि ऐसा ही मुद्दा नारायण सिंह ने भाजपा के नेता सुंदरलाल पटवा के खिलाफ दायर चुनावी याचिका में उठाया। शीर्ष न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की एक अन्य संवैधानिक पीठ ने इस मामले को सात न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ के पास भेज दिया था। इसके बाद पांच न्यायाधीशों की पीठ ने सिंह का मामला भी सात न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष रखने के लिए प्रधान न्यायाधीश के पास भेज दिया था।
हालांकि तीन न्यायाधीशों- यू यू ललित, ए के गोयल और डी वाई चंद्रचूड़ का अल्पमत यह था कि ‘उसका’ धर्म का अभिप्राय सिर्फ उम्मीदवार के धर्म से है। न्यायाधीशों के बीच बहुमत यह था कि ऐसे मुद्दों को देखते समय ‘धर्मनिरपेक्षता’ का ख्याल रखा जाना चाहिए। बहुमत में शामिल चार न्यायाधीशों में एम बी लोकुर, एस ए बोबडे और एल एन राव शामिल थे।
‘धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा’ के आधार पर वोट मांगना या मतदाताओं से मतदान नहीं करने के लिए कहना ‘भ्रष्ट तरीका’ है या नहीं, इससे संबंधित चुनावी कानून के प्रावधान के दायरे पर फैसला शीर्ष न्यायालय ने 27 अक्तूबर को सुरक्षित रख लिया था। पहले के फैसले में कहा गया था कि ‘भ्रष्ट तरीके’ से संबंधित मामलों को देखने वाली जनप्रतिनिधि कानून की धारा 123 (3) में इस्तेमाल शब्द ‘उसका धर्म’ का अभिप्राय सिर्फ उम्मीदवारों के धर्म से है।
जनप्रतिनिधि कानून की धारा 123 (3) कहती है, ‘किसी उम्मीदवार या उसके एजेंट द्वारा या उम्मीदवार की सहमति से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा या उसके चुनावी एजेंट द्वारा किसी व्यक्ति के धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर उसे वोट करने या वोट नहीं करने के लिए अपील करना या किसी उम्मीदवार के निर्वाचन की संभावनाओं को आगे बढ़ाने के लिए या प्रभावित करने के लिए धार्मिक प्रतीकों या राष्ट्रीय प्रतीकों का इस्तेमाल करना’ भ्रष्ट तरीका माना जाएगा। पीठ ने कहा था कि धर्म को ‘‘मानने और प्रसारित करने’ की स्वतंत्रता है लेकिन पीठ ने यह पूछा था कि ‘‘क्या इसका (धर्म का) इस्तेमाल चुनावी उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है?’
पीठ कई याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिनमें अभिराम सिंह की याचिका भी शामिल थी। वर्ष 1990 में मुंबई की सांताक्रूज विधानसभा सीट से विधायक के रूप में निर्वाचित अभिराम सिंह के निर्वाचन को बंबई उच्च न्यायालय ने दरकिनार कर दिया था। शीर्ष न्यायालय ने फरवरी 2014 को अभिराम सिंह की याचिका को अन्य याचिकाओं के साथ संलग्न कर दिया था। पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने इनके संदर्भ में अपने 20 साल पुराने ‘हिंदुत्व’ के फैसले पर फिर से गौर करने और चुनाव कानूनों पर सुविचारित व्यवस्था के लिये इस पर सात सदस्यीय संविधान पीठ को सौंपा जायेगा।
धारा 123(3) की व्याख्या का मुद्दा 30 जनवरी 2014 को पांच न्यायाधीशों की एक पीठ के समक्ष आया था। इस पीठ ने इसे सात न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया था। तीन न्यायाधीशों की एक पीठ ने 16 अप्रैल 1992 को सिंह की अपील पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को सौंप दी थी। इस याचिका में भी यही सवाल और धारा 123 (3) की व्याख्या की बात उठाई गई थी। हालांकि इस मामले पर 30 जनवरी 2014 को पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ सुनवाई कर रही थी, ऐसा बताया गया कि ऐसा ही मुद्दा नारायण सिंह ने भाजपा के नेता सुंदरलाल पटवा के खिलाफ दायर चुनावी याचिका में उठाया। शीर्ष न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की एक अन्य संवैधानिक पीठ ने इस मामले को सात न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ के पास भेज दिया था। इसके बाद पांच न्यायाधीशों की पीठ ने सिंह का मामला भी सात न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष रखने के लिए प्रधान न्यायाधीश के पास भेज दिया था।
No comments:
Post a Comment