क्या वाकई केंद्र सरकार अब लोकतंत्र की हत्या करने पर तुल गयी है ...बजट को लेकर उठाये गये उसके कदम से तो ऐसा ही लग रहा है..पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की तारीखों को देखते हुए देश के प्रमुख
विपक्षी दलों ने 1 फरवरी को पेश होने वाले केंद्रीय बजट को टालने की मांग
निर्वाचन आयोग से की है.
बजट पेश होने के ठीक तीन दिन बाद चुनावी मतदान शुरू हो जाएगा. विपक्ष कहता है कि कि बजट में लोक लुभावन घोषणाएं कर केंद्र सरकार मतदाताओं को ललचा-रिझा कर अवांछित लाभ उठा सकती है. उनके अनुसार यह आचरण चुनाव की आदर्श आचार संहिता के खिलाफ है. पर मोदी सरकार के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने विपक्षी दलों की मांग को ठुकराते हुए कहा कि बजट पेश करने की तारीख पहले से ही तय थी, इसलिए बजट टालने का सवाल ही नहीं है.
मोदी सरकार के अन्य मंत्री संतोष गंगवार का कहना है कि निर्वाचन आयोग को पहले ही मालूम था कि 1 फरवरी को बजट पेश होना है.
सरकार की दलीलों में कितना दम?
सरकार की इन दलीलों में कोई दम नहीं है, बल्कि केंद्र सरकार का निरंकुश और स्वेच्छाकारी रवैया संविधान की संकल्पनाओं के खिलाफ है.
बजट की तारीख तय करना एक प्रशासनिक प्रक्रिया है और चुनाव की तिथि तय करना विधायी प्रक्रिया है, बाध्यता है.
बजट की तिथि को आगे-पीछे करना सहज सरल प्रक्रिया है, पर चुनाव को टालने की प्रक्रिया जटिल और दुरूह है. संविधान में विधानसभा चुनाव टालने का सीमित दायरा है और कठोर प्रावधान हैं.
विशेष परिस्थितियों में चुनावों को टाला जा सकता है. सामान्य दशा में विधानसभा के चुनावों को टाला नहीं जा सकता है, यह संवैधानिक बाध्यता है पर बजट की स्थिति सर्वथा जुदा है.
इसलिए केंद्र सरकार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है. 1 फरवरी को बजट लाने के लिए सरकारी दलील है कि इससे बजट के प्रावधनों को लागू कर के लिए वित्त वर्ष के 12 महानों का पूरा समय मिल जाएगा और सरकारी खर्च का पूरा लाभ अर्थव्यवस्था को मिल सकेगा
2012 में इन्हीं पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के मद्देनजर बजट को फरवरी के अंतिम दिन की बजाए 16 मार्च को लोकसभा में पेश किया गया था, जब तक इन राज्यों में चुनाव संपन्न हो चुके थे.
तब बजट टालने की मांग विपक्ष ने की थी और मौजूदा सत्तारुढ़ दल भाजपा विपक्ष में थी. यदि मोदी सरकार विपक्ष की यह मांग नहीं मानती है, तो संसदीय लोकतंत्र में यह मनमानी, स्वार्थपरकता की शर्मनाक नजीर होगी.
यह भी दलील दी जा रही है कि केंद्रीय बजट देश का मसला है और चुनाव केवल पांच राज्यों में हो रहे हैं.
पर गौरतलब यह है कि इन राज्यों में चुनाव टालने की बात 16 विपक्षी दलों ने एक साथ की है, जिनमें तूणमूल कांग्रेस और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम जैसे दल भी शामिल हैं, जिनके राज्यों पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु में चुनाव नहीं है.
चुनावों पर होगा बजट का असर
इन दलों को मिले मत सत्तारूढ़ पार्टी को मिले मतों से ज्यादा हैं. देश की एक बड़ी आबादी का मसला है. लगभग सभी जानकार इस बात से सहमत हैं कि इन विधानसभा चुनावों के नतीजों की 2019 में लोकसभा चुनाव में निर्णायक भूमिका होगी.
विशेषकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की, जहां लगभग चार बड़े दलों का भविष्य दांव पर लगा हुआ है.
यह चुनाव उनके लिए जीवन मरण का सवाल है. इन परिस्थितियों में बजट को लेकर विपक्षी दलों की शंकाएं निराधार नहीं हैं.
केंद्रीय बजट के लोक लुभावन प्रावधानों से मतदाता प्रभावित हो सकते हैं. बेशक बजट देश का आर्थिक दस्तावेज होता है. पर समय बजट की लोक लुभावन घोषणाओं को संदिग्ध बना देता है. चुनाव के समय ऐसे प्रलोभन आभासी घूस से कम नहीं है.
केंद्र सरकार की मंशा पर सवाल
इसलिए इन विधानसभा चुनावों से ऐन पहले बजट लाने पर केंद्र सरकार की मंशा पर सवाल उठना स्वाभाविक है. सब जानते हैं कि विधानसभा की अवधि पांच साल की होती है.
विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने तक नई विधानसभा का गठन संवैधानिक बाध्यता है.
नोटबंदी से देश में असामान्य हालात हैं. केंद्र सरकार नोटबंदी को आसमान से तारे तोड़ लाने जैसी न्यारी उपलब्धि साबित करना चाहती है.
इसलिए इस बजट में लोकलुभावन, वोट खैंचू घोषणाओं की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है.
प्रधानमंत्री एक झलक दिखला चुके हैं
जिसकी एक झलक नए साल की पूर्व संध्या पर प्रधानमंत्री मोदी अपने राष्ट्रीय संबोधन में दे चुके हैं. जनधन खातों से जुड़ी अप्रत्याशित घोषणा क्या मतदाताओं को प्रभावित नहीं करेगी?
जिसके लिए दिमाग लगाने की बात खुद प्रधानमंत्री मोदी सार्वजनिक रूप से कर चुके हैं. किसानों की कर्ज माफी की घोषणा का कितना गहरा असर होता है, यह हम सब देख चुके हैं.
छात्र-युवाओं को शिक्षा-दक्षता हासिल करने के लिए 7-7.5 फीसदी ब्याज पर कर्ज की घोषणा से क्या ये मतदाता अप्रभावित रह पाएंगे?
मसला विपक्ष की इस मांग पर निर्वाचन आयोग के फैसले का नहीं है, महत्वपूर्ण सवाल बहुमत के रवैये का है क्योंकि बहुमत की संकीर्णता और स्वार्थपरकता से संसदीय लोकतंत्र का गुप्त विध्वंस होता है, जो अंतत: उसकी मृत्यु का उदघोष बन जाता है.
बजट पेश होने के ठीक तीन दिन बाद चुनावी मतदान शुरू हो जाएगा. विपक्ष कहता है कि कि बजट में लोक लुभावन घोषणाएं कर केंद्र सरकार मतदाताओं को ललचा-रिझा कर अवांछित लाभ उठा सकती है. उनके अनुसार यह आचरण चुनाव की आदर्श आचार संहिता के खिलाफ है. पर मोदी सरकार के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने विपक्षी दलों की मांग को ठुकराते हुए कहा कि बजट पेश करने की तारीख पहले से ही तय थी, इसलिए बजट टालने का सवाल ही नहीं है.
मोदी सरकार के अन्य मंत्री संतोष गंगवार का कहना है कि निर्वाचन आयोग को पहले ही मालूम था कि 1 फरवरी को बजट पेश होना है.
सरकार की दलीलों में कितना दम?
सरकार की इन दलीलों में कोई दम नहीं है, बल्कि केंद्र सरकार का निरंकुश और स्वेच्छाकारी रवैया संविधान की संकल्पनाओं के खिलाफ है.
बजट की तारीख तय करना एक प्रशासनिक प्रक्रिया है और चुनाव की तिथि तय करना विधायी प्रक्रिया है, बाध्यता है.
बजट की तिथि को आगे-पीछे करना सहज सरल प्रक्रिया है, पर चुनाव को टालने की प्रक्रिया जटिल और दुरूह है. संविधान में विधानसभा चुनाव टालने का सीमित दायरा है और कठोर प्रावधान हैं.
विशेष परिस्थितियों में चुनावों को टाला जा सकता है. सामान्य दशा में विधानसभा के चुनावों को टाला नहीं जा सकता है, यह संवैधानिक बाध्यता है पर बजट की स्थिति सर्वथा जुदा है.
इसलिए केंद्र सरकार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है. 1 फरवरी को बजट लाने के लिए सरकारी दलील है कि इससे बजट के प्रावधनों को लागू कर के लिए वित्त वर्ष के 12 महानों का पूरा समय मिल जाएगा और सरकारी खर्च का पूरा लाभ अर्थव्यवस्था को मिल सकेगा
2012 में इन्हीं पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के मद्देनजर बजट को फरवरी के अंतिम दिन की बजाए 16 मार्च को लोकसभा में पेश किया गया था, जब तक इन राज्यों में चुनाव संपन्न हो चुके थे.
तब बजट टालने की मांग विपक्ष ने की थी और मौजूदा सत्तारुढ़ दल भाजपा विपक्ष में थी. यदि मोदी सरकार विपक्ष की यह मांग नहीं मानती है, तो संसदीय लोकतंत्र में यह मनमानी, स्वार्थपरकता की शर्मनाक नजीर होगी.
यह भी दलील दी जा रही है कि केंद्रीय बजट देश का मसला है और चुनाव केवल पांच राज्यों में हो रहे हैं.
पर गौरतलब यह है कि इन राज्यों में चुनाव टालने की बात 16 विपक्षी दलों ने एक साथ की है, जिनमें तूणमूल कांग्रेस और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम जैसे दल भी शामिल हैं, जिनके राज्यों पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु में चुनाव नहीं है.
चुनावों पर होगा बजट का असर
इन दलों को मिले मत सत्तारूढ़ पार्टी को मिले मतों से ज्यादा हैं. देश की एक बड़ी आबादी का मसला है. लगभग सभी जानकार इस बात से सहमत हैं कि इन विधानसभा चुनावों के नतीजों की 2019 में लोकसभा चुनाव में निर्णायक भूमिका होगी.
विशेषकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की, जहां लगभग चार बड़े दलों का भविष्य दांव पर लगा हुआ है.
यह चुनाव उनके लिए जीवन मरण का सवाल है. इन परिस्थितियों में बजट को लेकर विपक्षी दलों की शंकाएं निराधार नहीं हैं.
केंद्रीय बजट के लोक लुभावन प्रावधानों से मतदाता प्रभावित हो सकते हैं. बेशक बजट देश का आर्थिक दस्तावेज होता है. पर समय बजट की लोक लुभावन घोषणाओं को संदिग्ध बना देता है. चुनाव के समय ऐसे प्रलोभन आभासी घूस से कम नहीं है.
केंद्र सरकार की मंशा पर सवाल
इसलिए इन विधानसभा चुनावों से ऐन पहले बजट लाने पर केंद्र सरकार की मंशा पर सवाल उठना स्वाभाविक है. सब जानते हैं कि विधानसभा की अवधि पांच साल की होती है.
विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने तक नई विधानसभा का गठन संवैधानिक बाध्यता है.
इन
राज्यों में फरवरी-मार्च में चुनाव होने हैं, यह बजट की तारीख तय होने से
काफी पहले से तयशुदा बात थी, फिर 1 फरवरी को बजट लाने का निर्णय क्यों
किया, जबकि सकल घरेलू उत्पाद के सटीक आंकड़े 1 फरवरी तक नहीं आ पाएंगे. ये
आंकड़े ही बजट की बुनियाद होते हैं, जिससे बजट में राजस्व प्राप्तियां और
व्यय का आकलन खड़ा होता है. केवल इस बार जीडीपी के आंकड़े, नई विधि के आधार
पर जारी किए जाएंगे, जो अनुमानों का अनुमान होंगे. बोलचाल की भाषा में इसे
धूल में लठ मारना कहा जाता है. लोकसभा के चुनावी साल में लेखानुदान का
प्रावधान क्यों किया गया है.
इससे संविधान निर्माताओं की
धारणा का साफ पता चलता है कि केंद्र चुनावी साल में मतदाताओं को प्रलोभन दे
कर लुभावने या ललचाने के लिए बजट का बेजा इस्तेमाल नहीं कर पाए. इसी आलोक
में 1 फरवरी को पेश होने वाले बजट को देखना ज्यादा न्यायपरक होगा.नोटबंदी से देश में असामान्य हालात हैं. केंद्र सरकार नोटबंदी को आसमान से तारे तोड़ लाने जैसी न्यारी उपलब्धि साबित करना चाहती है.
इसलिए इस बजट में लोकलुभावन, वोट खैंचू घोषणाओं की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है.
प्रधानमंत्री एक झलक दिखला चुके हैं
जिसकी एक झलक नए साल की पूर्व संध्या पर प्रधानमंत्री मोदी अपने राष्ट्रीय संबोधन में दे चुके हैं. जनधन खातों से जुड़ी अप्रत्याशित घोषणा क्या मतदाताओं को प्रभावित नहीं करेगी?
जिसके लिए दिमाग लगाने की बात खुद प्रधानमंत्री मोदी सार्वजनिक रूप से कर चुके हैं. किसानों की कर्ज माफी की घोषणा का कितना गहरा असर होता है, यह हम सब देख चुके हैं.
छात्र-युवाओं को शिक्षा-दक्षता हासिल करने के लिए 7-7.5 फीसदी ब्याज पर कर्ज की घोषणा से क्या ये मतदाता अप्रभावित रह पाएंगे?
मसला विपक्ष की इस मांग पर निर्वाचन आयोग के फैसले का नहीं है, महत्वपूर्ण सवाल बहुमत के रवैये का है क्योंकि बहुमत की संकीर्णता और स्वार्थपरकता से संसदीय लोकतंत्र का गुप्त विध्वंस होता है, जो अंतत: उसकी मृत्यु का उदघोष बन जाता है.
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