Sunday, January 8, 2017

शास्त्रो के अनुसार 12 दिन पहले से कमा सकते है मकर संक्रंति का पुण्य..

अगर आप मकर संक्रांति के दिन मंदिरो और नदियो की भीड से बचकर पुण्य कमाना चाहते है तो शास्त्रो के अनुसार आप ऐसा कर सकते है आज के ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जाड़े का अयन काल 21 दिसम्बर को होता है और उसी दिन से सूर्य उत्तरायण होते हैं। किंतु भारत में वे लोग, जो प्राचीन पद्धतियों के अनुसार रचे पंचांगों का सहारा लेते हैं, उत्तरायण का आरम्भ 14 जनवरी से मानते हैं। वे इस प्रकार उपयुक्त मकर संक्रान्ति से 23 दिन पीछे हैं। मध्यकाल के धर्मशास्त्र ग्रंथों में यह बात उल्लिखित है, यथा हेमाद्रि ने कहा है कि प्रचलित संक्रान्ति से 12 दिन पूर्व ही पुण्यकाल पड़ता है, अत: प्रतिपादित दान आदि कृत्य प्रचलित संक्रान्ति दिन के 12 दिन पूर्व भी किये जा सकते हैं।

पुण्यकाल के नियम

संक्रान्ति के पुण्यकाल के विषय में सामान्य नियम के प्रश्न पर कई मत हैं। शातातप जाबाल एवं मरीचि ने संक्रान्ति के धार्मिक कृत्यों के लिए संक्रान्ति के पूर्व एवं उपरान्त 16 घटिकाओं का पुण्यकाल प्रतिपादित किया है; किंतु देवीपुराण एवं वसिष्ठ ने 15 घटिकाओं के पुण्यकाल की व्यवस्था दी है। यह विरोध यह कहकर दूर किया जाता है कि लघु अवधि केवल अधिक पुण्य फल देने के लिए है और 16 घटिकाओं की अवधि विष्णुपदी संक्रान्तियों के लिए प्रतिपादित है। संक्रान्ति दिन या रात्रि दोनों में हो सकती है। दिन वाली संक्रान्ति पूरे दिन भर पुण्यकाल वाली होती है। रात्रि वाली संक्रान्ति के विषय में हेमाद्रि, माधव आदि में लम्बे विवेचन उपस्थित किए गये हैं। एक नियम यह है कि दस संक्रान्तियों में, मकर एवं कर्कट को छोड़कर पुण्यकाल दिन में होता है, जबकि वे रात्रि में पड़ती हैं। इस विषय का विस्तृत विवरण तिथितत्त्व और धर्मसिंधु में मिलता है।

ग्रहों की संक्रान्ति


मकर संक्रांति के अवसर पर रंगोली बनाते हुए
ग्रहों की भी संक्रान्तियाँ होती हैं, किन्तु पश्चात्कालीन लेखकों के अनुसार 'संक्रान्ति' शब्द केवल रवि-संक्रान्ति के नाम से ही द्योतित है, जैसा कि स्मृतिकौस्तुभ]में उल्लिखित है। वर्ष भर की 12 संक्रान्तियाँ चार श्रेणियों में विभक्त हैं-
  1. दो अयन संक्रान्तियाँ- मकर संक्रान्ति, जब उत्तरायण का आरम्भ होता है एवं कर्कट संक्रान्ति, जब दक्षिणायन का आरम्भ होता है।
  2. दो विषुव संक्रान्तियाँ अर्थात मेष एवं तुला संक्रान्तियाँ, जब रात्रि एवं दिन बराबर होते हैं।
  3. वे चार संक्रान्तियाँ, जिन्हें षडयीतिमुख अर्थात् मिथुन, कन्या, धनु एवं मीन कहा जाता है तथा
  4. विष्णुपदी या विष्णुपद अर्थात् वृषभ, सिंह, वृश्चिक एवं कुम्भ नामक संक्रान्तियाँ।[23][2]

संक्रांति के प्रकार

'ये बारह संक्रान्तियाँ सात प्रकार की, सात नामों वाली हैं, जो किसी सप्ताह के दिन या किसी विशिष्ट नक्षत्र के सम्मिलन के आधार पर उल्लिखित हैं; वे ये हैं- मन्दा, मन्दाकिनी, ध्वांक्षी, घोरा, महोदरी, राक्षसी एवं मिश्रिता।
  1. घोरा रविवार, मेष या कर्क या मकर संक्रान्ति को,
  2. ध्वांक्षी सोमवार को,
  3. महोदरी मंगल को,
  4. मन्दाकिनी बुध को,
  5. मन्दा बृहस्पति को,
  6. मिश्रिता शुक्र को एवं
  7. राक्षसी शनि को होती है।
  • इसके अतिरिक्त कोई संक्रान्ति यथा मेष या कर्क आदि क्रम से मन्दा, मन्दाकिनी, ध्वांक्षी, घोरा, महोदरी, राक्षसी, मिश्रित कही जाती है, यदि वह क्रम से ध्रुव, मृदु, क्षिप्र, उग्र, चर, क्रूर या मिश्रित नक्षत्र से युक्त हों। 27 या 28 नक्षत्र निम्नोक्त रूप से सात दलों में विभाजित हैं-
  1. ध्रुव (या स्थिर) – उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा, रोहिणी
  2. मृदु – अनुराधा, चित्रा, रेवती, मृगशीर्ष
  3. क्षिप्र (या लघु) – हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजित
  4. उग्र – पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपदा, भरणी, मघा
  5. चर – पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, स्वाति , शतभिषक
  6. क्रूर (या तीक्ष्ण) – मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा, आश्लेषा
  7. मिश्रित (या मृदुतीक्ष्ण या साधारण) – कृत्तिका, विशाखा। ऐसा उल्लिखित है कि ब्राह्मणों के लिए मन्दा, क्षत्रियों के लिए मन्दाकिनी, वैश्यों के लिए ध्वांक्षी, शूद्रों के लिए घोरा, चोरों के लिए महोदरी, मद्य विक्रेताओं के लिए राक्षसी तथा चाण्डालों, पुक्कसों तथा जिनकी वृत्तियाँ (पेशे) भयंकर हों एवं अन्य शिल्पियों के लिए मिश्रित संक्रान्ति श्रेयस्कर होती है

संक्रान्ति का देवीकरण

आगे चलकर संक्रान्ति का देवीकरण हो गया और वह साक्षात्‌ दुर्गा कही जाने लगी। देवीपुराण में आया है कि देवी वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, दिन आदि के क्रम से सूक्ष्म विभाग के कारण सर्वगत विभु रूप वाली है। देवी पुण्य तवं पाप के विभागों के अनुसार फल देने वाली है। संक्रान्ति के काल में किये गये एक कृत्य से भी कोटि-कोटि फलों की प्राप्ति होती है। धर्म से आयु, राज्य, पुत्र, सुख आदि की वृद्धि होती है, अधर्म से व्याधि, शोक आदि बढ़ते हैं। विषुव संक्रान्ति के समय जो दान या जप किया जाता है या अयन में जो सम्पादित होता है, वह अक्षय होता है। यही बात विष्णुपद एवं षडशीति मुख के विषय में भी है।[

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